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दिल्ली में कैसे हुई शिक्षा क्रांति : AAP की कहानी, अक्षय मराठे की जुबानी



दिल्ली में AAP की सरकार बनने के बाद से एक खबर अक्सर हेडलाइन बनती रही- "दिल्ली सरकार ने निजी स्कूलों से बढ़ी हुई फीस वापस कराई", "दिल्ली सरकार ने 575 स्कूलों को नौ प्रतिशत ब्याज के साथ फीस लौटाने का निर्देश दिया"। ऐसे शीर्षक हमेशा मेरे चेहरे पर मुस्कान बिखेर दिया करते।

दिल्ली सरकार के इस कदम ने प्राइवेट स्कूलों में मनमानी फीसवृद्धि पर रोक लगा दी है। अभिभावकों से मिली शिकायतों के आधार पर कुछ स्कूलों पर कार्रवाई की गई, कई स्कूलों की मान्यता भी रद्द कर दी गई। देश में पहली बार निजी स्कूलों के साथ अफसरों, नेताओं के गंठजोड़ को ध्वस्त करके शिक्षा को व्यवसाय बनने से रोका गया है।

यह क्रांतिकारी बदलाव कैसे आया? यह जिज्ञासा लंबे समय से थी। हाल में अक्षय मराठे से पूरी कहानी सुनने का मौका मिला। दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया की तत्कालीन सलाहकार आतिशी के साथ दिल्ली की शिक्षा क्रांति में अहम भूमिका निभाने वाले अक्षय मराठे की जुबानी सुनिए पूरी कहानी।

कैसे हुई शुरूआत? 
स्कूलों में मनमानी फीसवृद्धि के खिलाफ लड़ाई 1990 के दशक में शुरू हुई थी। नागरिकों के एक समूह ने 'दिल्ली अभिभावक महासंघ' बनाकर अदालत का दरवाजा खटखटाया था। स्कूलों में फीसवृद्धि को लेकर स्पष्ट कानून बने हुए हैं। हर साल स्कूलों को दिल्ली के शिक्षा विभाग के पास अपनी फीस संरचना की जानकारी भेजना आवश्यक है। स्कूलों द्वारा इन नियमों का पालन नहीं किया जाता था। इसलिए अदालत ने अभिभावकों के पक्ष में फैसला सुनाया।

अभिभावकों के प्रमुख बिंदु इस प्रकार थे -

1. गाइडलाइन का उल्लंघन 

दिल्ली के सरकारीं स्कूलों पर दो निकायों का नियंत्रण है। पहला, दिल्ली सरकार का शिक्षा विभाग, जो 'दिल्ली स्कूली शिक्षा अधिनियम 1973' के तहत कार्रवाई करता है। दूसरा, दिल्ली विकास अभिकरण यानि डीडीए। स्कूलों को जमीन आबंटन के क्रम में कुछ शर्ते होती हैं।

स्कूल उन शर्तो तथा 1973 के अधिनियम के अनुरूप चलने को बाध्य हैं। लेकिन पूर्व की सरकारों ने इस पर ढिलाई बरती। इसके कारण स्कूलों ने लगातार मनमानी फीस बढ़ाई। वेतन आयोग की हरेक सिफारिश के बाद शिक्षकों को ज्यादा तनख्वाह देने के बहाने फीस बढ़ा दी जाती। हर साल लेबोरेट्री बनाने या अन्य किसी नाम पर फ़ीस बढ़ाई जाती। कुछ मामले में यह जायज भले हो, लेकिन ज्यादातर मामलों में यह फीसवृद्धि अनावश्यक और अन्यायपूर्ण होती थी। मनमानी फीस वसूल कर स्कूल प्रबंधन उस पैसे से महंगी जमीनें, कोठियां और लक्जरी कारें ख़रीदा करता था।

2. जस्टिस दुग्गल कमिटी 

दिल्ली अभिभावक महासंघ का मामला सुनने के दौरान दिल्ली हाईकोर्ट ने 'जस्टिस दुग्गल समिति' बना दी। इसने 1999 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। उस पर कार्रवाई का दायित्व दिल्ली सरकार पर था। लेकिन स्कूलों के साथ अधिकारियों, राजनेताओं की सांठगांठ के कारण कोई कार्रवाई नहीं हुई।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी, तो शिक्षा की उच्च प्राथमिकता दी गई। जस्टिस दुग्गल समिति का कड़ाई से अनुपालन करने का निर्देश जारी किया गया। समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही अभी फीसवृद्धि रोकने तथा बढ़ी फीस लौटाने की कार्रवाई हो रही है।

कानून कहता है कि स्कूल जिस नाम पर फीस बढ़ाएगा, उसी उद्देश्य पर खर्च करना होगा। स्टाफ सैलरी के सिवा अन्य विषयों पर खर्च संबंधी नियम भी हैं। दुग्गल समिति ने कैपिटल एक्सपेंडिचर की भी परिभाषा निर्धारित की। इसके तहत टेबल, बेंच, फर्नीचर, उपस्कर, पंखे इत्यादि को ही रखा। लिहाजा, स्कूलों के लिए फीस बढ़ाकर मनमाना खर्च करना आसान नहीं रह गया।

3. जस्टिस अनिलदेव सिंह कमिटी 

दिल्ली हाईकोर्ट ने 2011 में कुछ अन्य संबंधित विषयों पर सुझाव के लिए यह समिति बनाई। इसने स्कूलों के आय-व्यय का लेखा-जोखा देखकर यह विचार किया कि सम्बंधित स्कूल को फीस बढ़ाने की जरूरत है, अथवा नहीं। समिति ने दिसंबर 2015 में अपनी नवीं रिपोर्ट पेश की। इसमें 1066 स्कूलों के संबंध में अनुशंसा थी। इस पर आम आदमी सरकार ने कठोर कदम उठाए। इसके कारण मीडिया में कुछ ऐसी खबरें आने लगीं, जिन्हें पढ़ना सुखद था-

अक्टूबर 2015 : 472 स्कूलों को लौटानी होगी बढ़ी हुई फीस
मई 2017 : 438 स्कूलों ने अब तक नहीं लौटाई बढ़ी हुई फीस
अगस्त 2017 : दिल्ली सरकार ने 449 स्कूलों के अधिग्रहण का प्रस्ताव दिया
अगस्त 2017 : 449 स्कूलों को फीसवृद्धि पर नोटिस
मई 2018 : निजी स्कूलों को बढ़ी हुई फीस लौटाने का निर्देश
दिसंबर 2018 : माउंट कार्मेल स्कूल की मान्यता फी बढ़ाने की वजह से रद्द (TOI)
दिसंबर 2018 : 3 निजी स्कूलों को 9% व्याज दर के हिसाब से बढ़ी हुई फी लौटाने के निर्देश

केंद्र ने रोका शिक्षा विधेयक 
मौजूदा कानून के अनुसार स्कूलों के खिलाफ दिल्ली सरकार दो तरह के कदम उठा सकती है -

पहला- स्कूल की मान्यता रद्द करना।
दूसरा- स्कूल का प्रबंधन अपने हाथ में लेना।

दोनों ही विकल्प बेहद अव्यावहारिक हैं। स्कूल की मान्यता रद्द करने से बच्चों, अभिभावकों और शिक्षकों को नुकसान होगा। स्कूल का अधिग्रहण कर लें, तो उन्हें चलाने के लिए दिल्ली सरकार के पास पर्याप्त मानव संसाधन नहीं हैं। नई बहाली भी मुश्किल है क्योंकि सर्विसेस का मामला केंद्र और एलजी ने लटका रखा है।

लिहाजा, दिल्ली सरकार ने विधानसभा में मई 2015 में 'स्कूल फीस नियंत्रण विधेयक' पारित किया। यह कानून बन जाता, तो फीस बढ़ाने की स्थिति में दिल्ली सरकार के पास स्कूल प्रबंधन के खिलाफ कदम उठाने की कारगर शक्तियां होतीं। ऐसे क़दमों से बच्चों का कोई नुकसान नहीं होता। लेकिन दुर्भाग्य है कि केंद्र सरकार ने अब तक इस विधेयक को लटका रखा है। निजी स्कूल प्रबंधकों की पावरफुल लॉबी है, जिसका केंद्र के बड़े अधिकारियों और केंद्र सरकार पर गहरा प्रभाव है। इसके कारण दिल्ली की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को मंजूरी देने के वैधानिक दायित्व को पूरा नहीं करके केंद्र सरकार ने संघीय शक्ति के दुरूपयोग की बेशर्मी की है। अन्य विषयों पर भी दिल्ली सरकार के महत्वपूर्ण विधेयकों को मोदी सरकार ने लटका रखा है।

दिलचस्प मुकाबला
दिल्ली में 2015 में सरकार बनने के बाद हर साल के प्रारंभ में स्कूलों को मनमानी फीसवृद्धि न करने के निर्देश जारी किए गए। लेकिन हर बार कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद जैसे दिग्गज वकील सह राजनेताओं के जरिये मामले को अदालत में उलझा दिया गया। दिल्ली की प्राइवेट स्कूल लॉबी की बड़े अधिकारियों और राजनेताओं के साथ गहरी सांठगांठ है। जिन अफसरों, नेताओं पर सरकारी स्कूलों की व्यवस्था सुधारने का दायित्व है, वे खुद ही प्राइवेट स्कूल चलाते हैं। इसलिये वे सरकारीं स्कूलों पर ध्यान नहीं देते ताकि बच्चे मजबूर होकर निजी स्कूलों में नाम लिखाएं।

दिल्ली के अभिभावक लंबे अरसे से इस गंठजोड़ के खिलाफ लड़ रहे थे। आम आदमी सरकार बनते ही उनके सभी सुझावों को ध्यान में रखते हुए कानूनों का कड़ाई से पालन शुरू हुआ। ऐसी ईमानदार राजनीति वाली कोई पार्टी पहले आई होती, तो दिल्ली में स्कूली शिक्षा का इतना बुरा हाल नहीं हुआ होता।

फ़िलहाल दिल्ली की शिक्षा क्रांति का यह प्रयोग जारी है। बड़ी संख्या में स्कूलों ने बढ़ी हुई फीस ब्याज सहित लौटाई है। ऐसे चेक लेते वक्त अभिभावकों के चेहरे पर अद्भुत ख़ुशी दिखती है। ऐसे अभिभावक अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और आतिशी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।

अब दिल्ली के निजी स्कूलों के लिए मनमानी फीस बढ़ाना आसान नहीं रहा। हालाँकि दिल्ली सरकार इस दिशा में जितना तेज और जितनी दूर जाना चाहती है, उसमें केंद्र की अनगिनत बाधाएं हैं।

इन अनुभवों ने यह भी दिखाया कि दिल्ली जैसे सीमित शक्तियों वाले राज्य में जनहित और ईमानदारी की राजनीति करना कितना चुनौतीपूर्ण है। अधिकारियों और राजनेताओं का प्रभावशाली गंठजोड़ हर बदलाव में तरह तरह की साजिश करके बाधा उत्पन्न करता है। निजी स्कूलों का मामला हो, निजी अस्पतालों का या फिर जनवितरण प्रणाली दुरुस्त करने और पर्यावरण नियमों के अनुपालन का, हर मामले में टकराव ही रास्ता दिखता है। किसी संवैधानिक सरकार को कानूनसम्मत क़दमों के लिए ऐसे संघर्ष में जाना पड़ा हो, इसकी दिल्ली के सिवा दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी।

देखें: अक्षय मराठे की आदित्य रोशन से बातचीत



इस ब्लॉग के हिंदी अनुवाद के लिए डॉ विष्णु राजगढ़िया को बहुत बहुत धन्यवाद

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